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१ अगस्त : अण्णाभाऊ साठे जयंती हिंदी भाषण

दलित-क्रांति के कवि अण्णा भाऊ साठे (Anna Bhau sathhe)


         दीपक प्रकाश देता है. मगर, इसके लिए उसे तिल-तिल जल कर मरना होता है; इसे बहुत कम लोग जानते हैं.यही बात महाराष्ट्र के दलित शाहिर अन्ना भाऊ साठे पर लागु होती है.अण्णाभाऊ पूरा नाम तुकाराम भाऊ साठे था. आपका जन्म 1 अग. 1920 को सांगली जिले के वाटेगाँव में हुआ था.इनके पिता का नाम भाऊराव और माता का नाम वालूबाई था.आपका विवाह जयवंती बाई से हुआ था. शुरू में आप बम्बई के घाटकोपर के चिराग नगर की एक चाल में रहा करते थे.
        आपका जन्म मांग जाति में हुआ था जिसे अंग्रेजों ने अपराधी जाति घोषित कर रखा था.हिन्दू वर्णाश्रम धर्म में मांग जाति के लोगों का कार्य गाँव की पहरेदारी करना होता है.उनके घरों की दीवारों पर तलवारे लटकती रहती है मगर, घर में खाने को नहीं रहता. अण्णा भाऊ भी इससे अलग नहीं थे.
           देश में उस समय अंग्रेजी राज्य के खिलाफ जबर्दस्त आन्दोलन हो रहे थे.अण्णाभाऊ ने सन 1947  के दौरान नाना पाटिल आदि क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेजों के विरुध्द बगावत में डट कर भाग लिया था.उस समय अण्णाभाऊ कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़े थे.उनके जिम्मे पार्टी का प्रचार कार्य था.अण्णाभाऊ दलित-शोषितों के बीच एक लोकप्रिय जन-कवि के रूप में प्रसिध्द थे.वे विनोदी स्वभाव के थे.वे अपनी क्रांतिकारी शाहिरी के बीच जब विनोद की बातें करते तो पब्लिक में हँसी के फव्वारे छूटते थे.वे एक बड़े ही दिलचस्प कलमकार थे.उन्होंने अपनी कविता,कहानी और नाटकों से दलित-शोषितों को उनके अस्मिता की जुबान दी थी.
       उन्होंने 'लोकयुध्द' के साप्ताहिक रिपोर्टर के तौर पर भी काम किया था.अण्णाभाऊ के क्रन्तिकारी काव्य  की शोहरत रूस,जर्मनी,पोलेंड आदि देशो तक पहुंची थी.उनकी किताबों के वहां अनुवाद वहां हुए थे.इन मुल्कों में वे शोषितों के साहित्यकार के रूप में पहिचाने जाने लगे थे.उन्हें इन देशों से निमंत्रण आते थे.सन 1948  में उन्हें विश्व साहित्य परिषद् का निमंत्रण मिला था. मगर, भारत सरकार ने उन्हें इजाजत नहीं दी थी.
              डा. बाबा साहेब आम्बेडकर के अण्णाभाऊ बड़े प्रशंक थे.बाबा साहेब के निधन पर दलित-शोषितों के लिए अण्णाभाऊ ने शाहिरी की थी -
                          "जग बदल घालूनी घाव-सांगुनी गेले मला भीमराव.
                           गुलामगिरिच्या  चिखलात- रुतूनी  बसला  एरावत.
                           अंग   झाडुनी   निघ   बाहेरी-  घे   बिनीवरती  घाव." *
       नि:संदेह, डा. आम्बेडकर के कार्यों ने दलित समाज के लेखक, कवि और नाटककारों में सामाजिक जागरूकता के लिए काम करने की प्रेरणा दी थी.सन 1935 में जब उन्होंने धर्मान्तरण करने का एलान किया तो सामाजिक चेतना के इन कलमदारों ने उनके पैगाम को दलित झोपड़ियों तक पहुँचाया.मांगरुलकर,तातुबा,गणू नेर्लेकर,पेठकर,बाबाजी मलवनकर,नाना गिरजकर, अप्पा,यलप्पा,कराळकर और गुंड्या आदी जन-कवियों को दलित-क्रांति  का इतिहास लंबे अर्से तक याद रखेगा.सन 1959 में अण्णा भाऊ ने अपनी मशहूर किताब 'फकीरा' लिखी.यह ग्रन्थ सन 1910 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाले मांग समाज के क्रांतिवीर फकीरा के संघर्ष पर था. इस पुस्तक को अण्णाभाऊ ने डा. आम्बेडकर को समर्पित किया था.
      अण्णाभाऊ वास्तव में, कलमकार थे.वे सिर्फ कवि ही नहीं थे,उन्होंने अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए कई विधाओं का सहारा लिया था.उन्होंने 40  के ऊपर उपन्यास लिखे. 300 के आस-पास कहानियां  लिखी.उनके कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए.उन्होंने कई नाटक लिखे.यहाँ तक कि उन्होंने कई चित्र-पट कथाएं भी लिखी.उनकी रचनाओं का अनुवाद अंग्रेजी,फ्रेंच आदि कई विदेशी भाषाओँ में हुआ.इसके अलावा  हिंदी,गुजराती,बंगाली,तमिल,मलियाली,उड़िया आदि देशी भाषों में भी हुआ.अण्णाभाऊ को 'इंडो-सोवियत कल्चर सोसायटी' की और से  रूस आने का निमंत्रण मिला था.इस यात्रा का जिक्र उन्होंने अपने सफरनामा 'माझा रशियाचा प्रवास' में किया है.
         अण्णाभाऊ के कलम की शोहरत महाराष्ट्र के सिने-जगत में तो थी ही, हिंदी सिने-जगत भी इससे अछूता नहीं था.उनकी 10 से अधिक कहानियों पर फिल्मे बनी जिसमे 'फकीरा' भी है. याद रहे, अण्णाभाऊ ने इस फिल्म की न सिर्फ पट-कथा लिखी थी वरन, फिल्म के एक किरदार ' सावळया' का रोल भी किया था.
         मगर, ये सब अण्णाभाऊ साठे की जिंदगी की शोहरत का एक हिस्सा था. असल में ये कलम की शोहरत कभी उनके घर की माली हालत की हिस्सेदार नहीं बनी.वे गरीब परिस्थिति के तो थे ही,उनके दलित-कलमकार और जाति-गत स्वाभिमान ने कभी उन्हें अपनी जमीन से ऊपर उठने नहीं दिया. दूसरे, उंच-नीच की घृणा पर आधारित हिन्दू समाज-व्यवस्था में दलित कवि या लेखक का जीना बड़ा दूभर होता है.
         एक बार, उनके एक मित्र ने उनसे कहा कि अण्णा भाऊ, आपकी कई किताबों का अनुवाद विदेशों में हुआ है.मास्को में आपके अनुवादित किताबों के रकम की भारी रायल्टी वहां इकठ्ठा हुई होगी. आप उसे हासिल करके बड़ा-सा बंगला क्यों नहीं बनवा लेते और फिर वहां लिखने का कार्य जारी रख सकते हैं ? इस पर, पता है अण्णा भाऊ ने क्या जवाब दिया था ? उन्होंने कहा था कि बंगले में मजे से आराम कुर्सी पर बैठ कर लिखने से सिर्फ कल्पनाएँ सूझ सकती है.लेकिन, गरीबी का दर्द और पीड़ा भूखे पेट रह कर ही महसूस की जा सकती है ! उनके ये ख्याति-प्राप्त मित्र कलाकार विठ्ठलराव उपम थे.
         अण्णाभाऊ की ख्याति के साथ-साथ उनके दुश्मन भी पैदा हुए थे.ब्राम्हण कम्युनिस्ट तो हाथ धोकर  कबके उनके पीछे पड़े थे.उनकी कविता, कहानी और नाटकों पर 'स्थापित राष्ट्रिय साहित्कारों' को खासी आपत्ति थी.उनके लिखे नाटकों के मंचन में भारी रूकावट पैदा हो रही थी. अंतत: अण्णाभाऊ को नाटकों से अपने को अलग करना पड़ा. यह उनके लिए बड़ा आघात था. आघात इतना बड़ा था कि वे उसे बर्दास्त नहीं कर पाए और उन्होंने अपने-आप को शराब के हवाले कर दिया.
         जिस शख्स के घर के सामने से शराबी जाने से डरता था, वह अब शराब का दास बन गया. धीरे-धीरे अण्णाभाऊ मौत के मुंह में समाने लगे.उनके प्रकाशकों ने उनके साथ दगा किया.उनके अपने रिश्तेदारों ने उनके पास जो भी था, उसे हजम कर लिया.और फिर, 18 जुलाई 1969  को यह लोक शाहिर सदा के लिए मौत के मुंह में समां गया.
         सोचता हूँ कि आखिर, ऐसे क्रन्तिकारी जन-कवि की मौत यूँ क्यों होती है ? जो  शख्स जन-चेतना की अलख जगाने अपनी जिन्दगी कुर्बान कर देता हो, सामाजिक-क्रांति की बात करते-करते सीने पर गोली खाने का माद्दा रखता हो,उसके खुद्दारी की इन्तहा इस कदर क्यों होती है ? मुझे लगता है कि विश्व-विद्यालयों में पढने वाले जिन बच्चों ने अण्णा भाऊ के संघर्ष पर पी.एच. डी. और डाक्टरेट किया है, आज नहीं तो कल जरुर वे इस पर गौर करेंगे.

सौजन्य : 
http://amritlalukey.blogspot.in/2011/11/anna-bhau-sathhe.html
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१ अगस्त : अण्णाभाऊ साठे जयंती हिंदी भाषण - २ 

जहाँ आज की मीडिया प्रजातान्त्रिक हुकूमत के सामने रेंगती हुई पाई जाती है, जो किसी के शमशान की यात्रा को या तो अनेक रंगों से सबोरती है या अपना कैमरों में ही कफ़न लगा देती है, वो समय जहाँ सरकार कलाकारों से लेकर हर वो स्वतंत्रता के मंजर पर प्रतिबन्ध लगाने पे तुली हैं, अण्णाभाऊ की लोक तमाशा एक मार्गदर्शक के रूप में नजर आती है. उम्मीद है, उनके सड़क की साहित्य और कला इस प्रजातंत्र को बेहतर करती रहेगी.
अण्णाभाऊ साठे महाराष्ट्र के सांगली जिला के दलित मातंग समुदाय से थे. अपनी जाति और ग़रीबी के कारण वो बचपन में पढाई नहीं कर पाए. पढाई क्या नहीं कर पाए, जाति के भेदभाव स्कूल में उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ. फिर सुखे के कारण, ११ साल की उम्र में, उनका परिवार मुंबई के ब्य्कुल्ला के एक चोल में रहना लगा.
आण्णाभाऊ साठे मुंबई में दो चीजों की ओर आकर्षित हुए – एक अलग राजनीतिक संगठन था और दूसरा मूक फिल्में. फिल्मों और विज्ञापनों के पोस्टर जो गली गली में थे, उनसे उन्होंने अपने आप को पढाया. अपने कैरियर एक मिल मजदूर के रूप में शुरू किया, फिर मुंबई के तेज जीवन और धरना, बैठकों, सत्याग्रह और विरोध प्रदर्शन की रोमांचक राजनीतिक जीवन का अनुभव करने के बाद, वोे एक तमाशा मंडली में शामिल हो गए.
अण्णाभाऊ की तेज आवाज, याद करने के लिए अपनी क्षमता, हारमोनियम, तबला, ढोलकी, बुलबुल की तरह विभिन्न उपकरणों खेल में अपने कौशल, तमाशा की दुनिया में उन्हें स्टार बना दिया. क्यूंकि खुद वो बहुत कामों में मजदूरी किये थे इसलिए उनकी बातें और सोच हमेशा समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचती थी.
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन, संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान सामाजिक जागरण की ओर काफी योगदान दिया. कलाकार के रूप में हर कार्यक्रम और विरोध प्रदर्शन में भाग लिया. उनकी लावणी, पोवाडा लोक कला की पृष्ठभूमि थी और सड़क उनके साहित्य के लिए खेलता रहा.
1945 में साप्ताहिक लोकयुद्ध के लिए एक पत्रकार के रूप में काम करते हुए वह बेहद लोकप्रिय बने. आम आदमी के दुख के बारे में विशेष रूप से लेखन, एक लेखक के रूप में अन्न्भाव की अद्भुत सफलता के पीछे कारण है.
१ अगस्त २००२ में भारत सरकार ने उनके नाम का डाक टिकट निकाला.
इसी अखबार में काम करते वक़्त उन्होंने अक्लेची गोष्ट, खाप्र्या चोर, मजही मुंबई जैसे नाटक लिखे. १९५० से १९६२ के बीच उनके अनेक उपन्यास भी प्रकाशित हुए जिनमें वैजयंता, माक्दिचा माल, चिखालातिल कमल, वार्नेछा वाघा, फकीरा शामिल है. उनकी लाल बावटा (वामपंथी कला मंच) और तमाशा पे इसी वक़्त सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया था, जिसके बाद वो इन्हें फोल्क गीत में तब्दील कर दिए, और प्रतिबन्ध के कोई मायने न रहे.
सौजन्य :
thesabha.org
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